हौज़ा नयूज़ एजेंसी के अनुसार, मौलाना फ़रज़ंद अली बुढ़ानवी, मुज़फ्फ़रनगर के मशहूर इलाक़े “बुढ़ाना” में पैदा हुए ,आपके वालिद “जनाब खुर्शीद अली” बस्ती के मोहतरम वा मोअज़्ज़ज़ फ़र्द थे।
मौलाना मोसूफ़ ने इब्तेदाई तालीम अपनी बस्ती में रहकर ही हासिल की उसके बाद ईरान का रुख किया और वहाँ पोहुंच कर जय्यद औलमा व मराजे की खिदमते बा बरकत में रहते हुए अपनी मालूमात को चार चाँद लगाए, तालीम मुकम्मल करने के बाद अपने वतन “बुढ़ाना” वापस आए और तबलीगे दीन में मसरूफ़ हो गये।
मौलाना फ़रज़ंद अली बुढ़ानवी निहायत मुतावाज़े शख्सियत के हामिल, शरीफुन नफ़्स, मुबल्लिग, मोअल्लिम और आरिफ़ इंसान थे, मौलाना ने एक रोज़ बुढ़ाना के लोगो को जमा करके कहा कि मुझे हुक्म हुआ कि इमामे हुसैन अ: की ज़ियारत के लिए इराक़ का सफ़र करूँ लिहाज़ा अब मैं इराक़ जा रहा हूँ, इसके बाद मोमेनीन को अलविदा कहा और वहाँ से निकल गए।
बुढ़ाना के मोमेनीन उनकी वापसी के मुंतज़िर थे, आख़िर वो वक़्त आ गया कि के आप ज़ियारत के सफ़र से वापस अपने वतन तशरीफ़ लाए, लोगों ने मोसूफ़ को हलक़े में ले लिया, आपने एक रुमाल खोला, लोगों ने देखा कि इस रुमाल में क़बरे इमाम हुसैन अ; की मुबारक मिट्टी है जिसने पूरी फिज़ा को महका दिया, अल्लामा ने मोमेनीन से कहा कल नमाज़े फ़ज्र के बाद इस मुबारक मिट्टी को शिया क़ब्रिस्तान में दफ्न करूंगा।
लोग नमाज़े फ़ज्र के बाद क़ब्रिस्तान में जमा हो गये, मौलाना ने अपने हाथों से उस मिट्टी को वहाँ दफ्न किया जहाँ रोज़े आशूर ताज़िया दफ्न किया जाता था, तुरबते इममे हुसैन अ: की तदफ़ीन के बाद मौलाना ने खुतबा दिया, खुतबे के दरमियान आपने कहा कि मैं इमामे हुसैन अ: के हुक्म से इमामे हुसैन अ: के रोज़े पर हाज़िर हुआ था, एक रोज़ नमाज़े शब के बाद तसबीहे जनाबे फ़ातेमा स: में मशग़ूल था कि एक शख्स मेरे पास आया और कुछ तबर्रुकात मुझे देकर कहा कि इन तबर्रुकात को अपनी बस्ती में मोजूद शिया क़ब्रिस्तान में दफ्न कर देना, इसको दफ्न करने के बाद उसके ऊपर इमामे हुसैन अ: के रोज़े की शबीह बना देना ताकि जो लोग कर्बला नहीं आ सकते वो वहाँ ज़ियारत करें और कर्बला की ज़ियारत का सवाब हासिल करें, ये सुनने के बाद कर्बला से आपने वतन वापस आ गया, तबर्रुकात को दफ्न कर दिया और तामीले हुक्म में रोज़ा ए इमाम हुसैन की शबीह भी तय्यार करा दी, ये शबीह सन 1927 ई॰ में आमादा हुई और आज तक इसी हालत पर बाक़ी है।
जब रोज़े की शबीह आमादा हो गई तो आपने वहाँ अज़ादारी क़ायम की जिसमें ख़ुद मजलिस पढ़ते थे एक रोज़ मजलिस पढ़ते पढ़ते दरमियान में कहा:
अदब से आओ झुक झुक कर अजब दरगाहे आली है
नबी के लाडलों ने इस जगह बस्ती बसा ली है
मौलाना मोसूफ़ ने अपना घर मुंहदिम कराया और इस जगह मस्जिद तामीर कराई वो बाग जो आपको विरासत में मिला था उसे मस्जिद के लिये वक़्फ़ कर दिया, आपकी बनवाई हुई मस्जिद आज भी बुढ़ाने में मोजूद है।
मज़कूरा नेक काम अंजाम देने के बाद मौलाना ने तबलीगे दीन की गरज़ से अपने वतन से देहली का रुख़ किया और पंजे शरीफ़ में क़याम पज़ीर हुए, पंजे शरीफ़ में क़याम के दौरान आपने इमामे हुसैन अ: की ज़रीह की निहायत खूबसूरत नक़्क़ाशी की जो आज भी मोजूद है और हज़ारों लोग ज़ियारत से मुशर्रफ़ हो रहे हैं।
मौलाना फ़रजनद अली एक अरसे तक देहली में मुक़ीम रहे, उसके बाद देहली से मुंबई की तरफ़ गामज़न हुए, मस्जिदे ईरानयान में क़याम किया और क़ुराने करीम वा नहजुल बलागा का दर्स देना शुरू किया, बुढ़ाने के मोमेनीन आपको अपने जद की मानिंद याद करते हैं, वो लोग जब कभी तिलावत करते हैं तो मोसूफ़ की रूह को भी हदया करते हैं।
मौलाना फ़रज़ंद अली तालीम के दिलदादा थे और ज़ियारते इमामे ज़माना अ:
के मुश्ताक़ थे, इसी शोक़ के पेशे नज़र बगैर ज़ादे राह पैदल जंगलों में निकल पड़े और इतना सफ़र किया की मुलके ईरान में दाख़िल हो गये, वहाँ पहुँच कर औलमा वा अफ़ाज़िल से कस्बे फ़ैज़ किया उसके बाद इराक़ का रुख़ किया और वहाँ भी बुज़ुर्ग मराजे की ख़िदमत में रहकर तालीम हासिल की।
मौलाना को ख़ुदावंदे आलम की जानिब से सिर्फ़ एक नेमत अता हुई थी जो बचपन में ही ख़ुदा को प्यारी हो गई, अभी बच्चे को गुज़रे ज़्यादा अरसा नहीं गुज़रा था, मौलाना की अहलिया भी आपको दाग़े मुफ़ारेक़त दे गईं, मौलाना ने ज़ोजा के इंतेक़ाल के बाद दूसरी शादी नहीं की और अपनी बक़या ज़िंदगी इबादते इलाही में गुज़ार दी।
आखिरकार ये इलमो अमल का माहताब सन: 1359 हिजरी बामुताबिक़ सन 1940 ई॰ शहरे मुंबई में गुरूब हो गया और मजमे की हज़ार आहो बुका के साथ मुंबई में मोजूद “क़ब्रिस्ताने ईरानयान” में सुपुर्दे ख़ाक कर दिया गया।
माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़: मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-7 पेज-175 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2019 ईस्वी।